आम मान्यता है कि युवा ही सुंदर होते हैं, बूढ़े नहीं; लेकिन बुढ़ापे का भी अपना एक अनूठा सौंदर्य होता है: शांति और ठहराव का सौंदर्य.
एक व्यक्ति वृद्धावस्था में प्रवेश के पहले बहुत दौड़ चुका होता है. धन, वैभव, पद, प्रतिष्ठा, शक्ति, सम्मान की सारी दौड़ें देख चुका होता है. कुछ सपनों को पूरा होते, तो कुछ को टूटते-बिखरते देख चुका होता है. इन सबसे कुछ तृप्ति मिली होती है, तो कुछ व्यर्थता का भास.
अब, यदि वह थोड़ा भी चिंतनशील है, जागा हुआ है, तो जीवन के अंतिम पड़ाव पर स्थिर होना चाहता है. उसे दौड़ में कोई रस नहीं रह जाता; किसी को हराने में, कुछ उपलब्ध करने में कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता.
जैसे ही यह घटता है उसकी ऊर्जा अंतर्गामी हो जाती है यानी अंदर की ओर बहने लगती है. वह अपनी केंद्र से, अपनी जड़ों से जुड़ने लगता है. और इस जुड़ाव से ही एक अनूठा सौंदर्य पैदा होता है. उसके जीवन में अद्भुत आलोक और माधुर्य खिलता है. जिसका आकर्षण बड़ा प्रबल होता है. शारीरिक आकर्षण तो उथला और क्षणिक होता है, लेकिन आंतरिक आकर्षण गहरा और स्थायी होता है.
दुर्भाग्यवश, कुछ विरले लोग ही इस सौंदर्य को अपने अंदर पैदा कर पाते हैं. अधिकतर बूढ़े तो जवानी के सपनों में ही रत रहते हैं. कहीं सफेद बालों को काला करके, तो कहीं झुर्रियों को श्रृंगार प्रसाधनों से छुपाकर युवावस्था के भ्रम में फँसे रहते हैं. बहुतेरे पूँजीपति, खिलाड़ी, फ़िल्म कलाकार, और राजनेता 70-80 साल की उम्र में भी किशोर, किशोरी होने का स्वांग रचते हैं. इस झूठे व्यक्तित्व से दुर्गंध ही आती है चाहे कितने ही सुगंधित इत्र लगा लें.
वृद्धावस्था कोई अभिशाप नहीं है, बल्कि जीवन का एक अपरिहार्य पड़ाव है. शारीरिक दुर्बलता के कारण यह बोझ और थकन से अवश्य भर जाता है, जिससे निपटने के लिए समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए. इसका अर्थ यह नहीं है कि झूठ का एक जाल बुनकर इस पड़ाव को नकारने की कोशिश करें, इससे दूर भागने की कोशिश करें. जो ऐसा करते हैं वे बुढ़ापे के सौंदर्य को कभी नहीं जान पाते.